Ajay

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जुस्तजू भाग --- 17

"                               "


आरूषि और अनुपम की रुकने की व्यवस्था नाथद्वारा में कॉटेज में की गई थी और यह कॉटेज थी आरूषि के ननिहाल पक्ष की। बाहर सर्वेंट्स क्वार्टर और आउट हाउस था।

 आरूषि जब इस सप्ताह की दिन दिन रंग बदलती गतिविधियों और उसके जीवन में गुजरे परिवर्तनों के चार्म से मुक्त हुई तो स्टंड रह गई। हर दिन उसके लिए अलग ही संदेश लेकर निकला और रात ने रंग बदला। उसने अपनों का प्यार पाया और कई गैरों की दुआएं पाई थी। जो शादी उसके लिए एक नाइटमेयर की तरह गुजरी थी वही आज उसके सपने के सच होने जैसी थी। 

वह अवाक अपने कमरे के दरवाजे पर खडी थी। आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे। होंठ महज़ फड़फड़ा रहे थे पर शब्द ..., वह तो अनसुने थे। अनुपम उसकी यह हालत देखकर घबरा गया।

"आरूषि, आरूषि........... आप ठीक है न !!!! कुछ चाहिए ?? थक गई हैं ??? आराम कीजिए।

पर आरूषि वैसे ही उसे देखे जा रही थी। अनुपम ने उसके पास आकर उसके कंधो को पकड़ा और अपने नज़दीक खींचा। उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। यह बहुत छोटी जगह थी और मेडिकल फैसिलिटी आरूषि की हालत के लिए नाकाफी थी। अब जो करना था उसे ही करना था। उसने उसे खींचकर अपने गले से लगा लिया। 

अचानक आरूषि फूट फूटकर रोने लगी। उसके अंदर अनगिनत इमोशंस चल रहे थे। जो उसकी मानसिक दशा से मुश्किल से संभल पा रहे थे। अनुपम के पास भी कोई उपाय नहीं था सिर्फ इसके कि उसे दिलासा और अपनेपन का अहसास कराए।

"यह.... यह..... सब.... सच है न... मैं.... मैं कोई सपना तो... तो नहीं.... देख रही.... हूं न....।" वह अटकते स्वर में बोल रही थी।

"सब सच है। देखिए आपके पास मैं हूं ना।"

"हमेशा..... रहेंगे ??"

"हमेशा"

"फिर... कभी... छोड़ तो.... छोड़ तो.....।" हिचकियों के बीच वह मुश्किल से कह पा रही थी।

अनुपम समझ रहा था अब "नहीं, कभी नहीं"।

अनुपम उसका ध्यान हटाने की तरकीब सोचने लगा।"पर खाली पेट भरने के लिए छोड़ना पड़ेगा न"

"खाली पेट ??"

"अब सुबह से कुछ भी नहीं खाया और आप केवल आंसू ही निकाल रही हैं। इनसे पेट तो क्या, प्यास भी नहीं बुझेगी।"

"हाय राम, पति मिला है या भुख्खड !! जब देखो तब मुझे देखकर खाने की ही बात करता है।"

"हां तो, पत्नी जी। भूख तो खाने से ही मिटेगी, जो आप तो बनाएंगी नहीं।"

"झूठ मत बोलिए। सुबह किसने बनाया था ?? यह ठीक है कभी खाना बनाया नहीं पर इनके लिए सीखा। यही नहीं कई बार खा भी चुके हैं पर सही यही है एक दिन न मिले तो पत्नी को ही सुनाएंगे।"

"वो तो अभी तक आपकी पहली काफी का स्वाद मिटा नहीं है।"

"तो आप बना देते। जरूरी है कि पत्नी ही बनाए ?? कभी अपने हाथ से कुछ बनाया भी है !!! बड़े आए !!! कॉफी नहीं मिली !!! गनीमत है उस दड़बे में वह तो बनाई। कभी देखा है कि कोई अपनी शादी के बाद अकेले किसी घर में ले गया और खुद बीमार पड़ गया !!"

"दरवाजा आपने बंद कर लिया था।"

"तो.... थकी हुई थी और अगर नहीं खोला था तो पिछले दरवाजे से आ जाते।"

"पिछला दरवाजा था ही नहीं।"

"तो चले जाते"

"हां फिर अकेले छोड़ने का इल्ज़ाम लगाया जाता।"

"बस कीजिए, घर आपका था तो आपकी गलती थी।"

"मान ली, पर खाने की कोई व्यवस्था करें। अब यह घर तो आपका है और राजकुमारी जी अब हम आपके मेहमान हैं।"

"और इस राजकुमारी से शादी करके उसे खाना बनवाने की ईच्छा रखने के इल्ज़ाम में ख़ुद कुछ लाकर खिलाने की सज़ा सुनाई जाती है।"

"जी राजकुमारी जी, आपके हुजूर में खाना टेबल पर लगा हुआ है। आप पधारें तो नाचीज़ का भी पेट भरे। अनुपम ने अदा से गर्दन झुकाकर कहा तो आरुषि की हंसी छूट गई। अनुपम को लगा कि उसकी परी ने जलतरंग बजा दिया हो। आरूषि अपनी मां की तरह बेहद खूबसूरत तो थी पर हंसते हुए वह और भी खूबसूरत लग रही थी।

आरूषि को खाने की टेबल पर बिठाकर अनुपम ने उसकी प्लेट लगा दी और ख़ुद उसके बगल में खड़ा रहा।

    "अब क्या है ??" आरूषि खीजकर बोली"आप खा क्यों नहीं रहे ??"

      "पहले राजकुमारी जी खाएं तो हमें अवसर मिले। वरना पहले खाने के जुर्म में कोई सजा नही मिल जाए कहीं।"

             "सजा तो जरूर मिलेगी और आपकी सजा है कि आप राजकुमारी को खिलाएं और साथ में ख़ुद भी खाएं।"

     "जी हुजूर"

आरूषि उसके हाथ से खाने लगी अब उसकी आंखों में अनुपम के लिए प्यार झलक रहा था। अनुपम उसे फिर से कुछ और सोचने का अवसर नहीं देना चाहता था। खाने के बाद उसने प्लेट उठाने का उपक्रम किया।

"अरे !! क्या करते हैं ??"

"राजकुमारी जी की सेवा"

"राजकुमारी का हुक्म है कि आप जाकर आराम करें।"

"पर अकेले डर लगता है !!"आरूषि अबकी बार जोर से हंस पड़ी।

"राजकुमारी आपकी सुरक्षा में बाहर तैनात है।"

"पर बाहर डर थोड़े न लग रहा है डर तो अंदर लग रहा है।"

"चिंता न करें राजकुमारी आपको बचाने के लिए अंदर भी आने को राज़ी है।"

"सच !!!" अनुपम की आंखों में शैतानी थी। आरूषि ने शर्माकर आंखे झुका ली। अनुपम आरूषि का यह रूप देखकर अपने होश खो रहा था। उसने आगे बढ़कर आरूषि को अपनी बांहों में भर लिया। आरूषि ने भी समर्पण कर दिया।

....... प्यार में डूबा सच्चा समर्पण।।

बात दिल की:-
तो बहुत मीठा मीठा हो गया न !! पर जीवन में हमेशा मीठा सा नहीं चलता। यहां तो सांप सीढी का खेल है। भाग्य हमेशा सीढ़ी नहीं चढ़ाता और अगर ऐसा होता है तो 99 पर का सांप सीधा तीसरे घर में छोड़ता है।


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4 Comments

Arman Ansari

27-Dec-2021 11:51 AM

Padkar maja a gya is part ko

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Ajay

27-Dec-2021 05:08 PM

Dhanyawad 🙏🏻

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Arpit Singh

27-Dec-2021 01:41 AM

Kafi achhi kahani h

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Ajay

27-Dec-2021 08:01 AM

धन्यवाद आपका

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